Tuesday, January 29, 2013

jiska tantra uska gantantra

गणतंत्र दिवस के इतने दिन बीत जाने के बाद भी मेरा मन इस विषय पर अबकी बार कुछ  लिखने का  नहीं कर रहा है। ऐसा नहीं है  की इस दिन को मैंने बड़ी धूम से  कभी मनाया हो  पर इतना सूनापन भी कभी महसूस नहीं हुआ, शायद इसलिए क्योंकी संविधान और कानून पर से हमारा विश्वास अब डगमगाने लगा है। पहले लोग सुबह से अपने देश के प्रधानमंत्री के भाषण को सुनने के लिए उत्त्साहित रहते थे, परिस्थितियाँ  तब भी बहुत अच्छी नहीं थी मगर इतनी खराब भी नहीं थी की जीवन को चलाना ही लोगों के लिए मुश्किल हो जाये।
राजनीती पर चर्चाये होती थी और सभी अपने अपने मतों को रखते थे। पर वक़्त कुछ ऐसा बदला की सभ्य समाज ने राजनीती को बिमारी के समान समझ लिया और नेताओं  ने इसे जानलेवा रोग बना दिया जो धीमे धीमे देश कमजोर बना रहा है।
अब तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के द्वारा रटा और कागज पर लिखा वही पुराना भाषण मजाक  के समान हो गया है है। देश परेशांन  है और जनता दुखी, समाज बिखर गया है और इंसान अपने ही लोगों को ख़त्म करने में लगा है ऐसे में कहाँ से आयेगी भगत सिंह की याद और गाँधी जी के पद्चिंह। जिन पर देश को चलाने का भार है वो खुद इतना गिर गए है। अब तो गली मोहल्ले और स्कूलों में भी देश भक्ति के गीतों की आवाज़े नहीं आती  है।  जिस संविधान पर हमें गर्व था उसके सारे नियम पहले ही आरक्षण की भेंट चढ़ चुके है, बची थी सजा तो वो भी इस नियम के अंतर्गत आ गयी है की दोषी किसी पोलिटिकल लीडर का जानने वाला है की नहीं अगर नहीं है तो भी कौन सी पार्टी उसे कैश करेगी।
इन सबके बाद कुछ  बचता ही नहीं है  जिसका फायदा जनता को मिले इसलिए देश की जनता ने गणतंत्र दिवस नेताओं  के नाम कर दिया है।  
                                                सही भी है जिसका तंत्र वही मनायेगा गणतंत्र।
    

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